राजा की रानी
इसमें शक नहीं कि नवीन ने हर प्रकार की कोशिश की, पर मैंने स्वीकार नहीं किया, बिना नहाये खाये ही वापस लौट आया हूँ।”
राजलक्ष्मी ने बड़े आनन्द के साथ कहा, “ज्योतिषी ने मेरा हाथ देखकर कहा है कि मैं राजरानी होऊँगी।”
“क्या दिया?'
पद्मा ने कह दिया, “पाँच रुपया। राजलक्ष्मी दीदी के ऑंचल में बँधे थे।”
मैंने हँसकर कहा, “मुझे देतीं तो मैं उससे भी अच्छा बता सकता था।”
ज्योतिषी उड़िया ब्राह्मण था, बहुत अच्छी बंगला बोलता था- बंगाली कहा जा सकता है। उसने भी हँसकर कहा, “नहीं महाशय, रुपये के लिए नहीं, रुपये तो मैं बहुत कमाता हूँ। सच कहता हूँ कि ऐसा अच्छा हाथ मैंने दूसरा नहीं देखा। देखिएगा, मेरा हाथ देखना कभी झूठ नहीं होता।”
कहा, “ज्योतिषीजी, बिना हाथ देखे कुछ बता सकते हो?”
“बता सकता हूँ। एक फूल का नाम लीजिए।”
“सेमर का फूल।”
ज्योतिषी ने हँसकर कहा, “सेमर का फूल ही सही। मैं बता दूँगा कि आप क्या चाहते हैं।” कहकर उसने खड़िया से दो मिनट तक हिसाब लगाकर कहा, “आप एक खबर जानना चाहते हैं।”
“कौन-सी खबर?”
वह मेरी ओर देखकर कहने लगा, “नहीं, मामले-मुकदमे की नहीं, आप किसी आदमी की खबर जानना चाहते हैं।”
“कैसी खबर है, बता सकते हैं?”
“बता सकता हूँ। खबर अच्छी है, दो-एक दिन में ही मिल जायेगी।” सुनकर मन ही मन विस्मित हुआ, मेरा चेहरा देखकर सबने ही यह अनुमान किया।
राजलक्ष्मी ने खुश होकर कहा, “देखा न? मैं कहती हूँ कि ये बड़ी अच्छी गणना करते हैं, पर तुम लोग तो किसी बात पर विश्वास ही, करना चाहते-हँसकर उड़ा देते हो।”
कमललता ने कहा, “अविश्वास किसका? नये गुसाईं, जरा अपना हाथ भी तो एक बार ज्योतिषीजी को दिखाओ।”
मेरे हाथ फैलाते ही ज्योतिषीजी ने अपने हाथ में मेरा हाथ ले लिया, दो-तीन मिनट तक पर्यवेक्षण किया, हिसाब लगाया, फिर कहा, “महाशय, देखता हूँ कि आपके लिए एक बड़ी बहुत विपत्ति...
“विपत्ति? कब?”
“बहुत जल्दी। मरने-जीने की बात है।”
राजलक्ष्मी की ओर ताककर देखा कि उसके चेहरे पर खून नहीं है- वह डर से सफेद पड़ गया है।
ज्योतिषी ने मेरा हाथ छोड़कर राजलक्ष्मी से कहा, “माँ, तुम्हारा हाथ एक बार और...”
“नहीं, मेरा हाथ अब नहीं देखना होगा, देख चुके।”
उसका तीव्र भावान्तर अत्यन्त स्पष्ट था। चतुर ज्योतिषी फौरन समझ गया कि हिसाब करने में उसने गलती नहीं की है। बोला, “मैं तो माँ दर्पण-मात्र हूँ, जो छाया पड़ेगी वही कहूँगा- पर रुष्ट ग्रह को भी शान्त किया जा सकता है, इसकी विधि है- सिर्फ दस-बीस रुपये खर्च करने की बात है।”
“तुम हमारे कलकत्ते के मकान पर आ सकते हो?”
'क्यों न आ सकूँगा माँ, ले जाने पर चला चलूँगा।”
“अच्छा।”
देखा कि ग्रह के कोप के प्रति तो उसको पूरा विश्वास है, पर उसे प्रसन्न कर लेने के बारे में काफी सन्देह है।
कमललता ने कहा, “चलो गुसाईं, तुम्हारी चाय तैयार कर दूँ, वक्त हो गया है।”